आर्थिक एवं सामाजिक रूप से वंचित विद्यार्थियों के लिए शिक्षा की चुनौतियाँ
प्रोफेसर जे0 के0 जोशी, निदेशक, शिक्षाशास्त्र
विद्याशाखा
यह बात साफ होने के
बाद- विभिन्न वर्गो,
समुदायों, जातियों के सन्दर्भ में शिक्षा के
प्रभाव के समय- exposure to education पर बात करनी होगी। यह
निर्विवाद है कि First generation learners के सम्मुख अनेक
ऐसी चुनौतियॉ हैं जो second generation learners,
third generation learners, fourth generation learners तथा जहाँ शिक्षा प्राप्त करने- प्रदान करने का लम्बा
इतिहास है- के सम्मुख नहीं है। लेकिन यह भी ध्यान में रखना होगा कि ये चुनौतियॉ
सदैव कठिनाइयॉ ही उत्पन्न नहीं करती हैं- कभी- कभी
इनसे विद्यार्थियों को लाभान्वित भी होता देखा गया है। ऐसे विद्यार्थियों में कभी-
कभी शिक्षा के लिए एक passion – एक zeal
एक धुन- एक उत्साह दिखता है जो कदाचित tenth generation
learners या twentieth generation learners में
नहीं भी हो सकता है। यहाँ मैं स्मरण कराना चाहूँ गा
कि पिछले दो- तीन दशकों से अकादमिक जगत में जो चर्चा हो रही है उसके अनुसार बड़े
काम intellectual commitment से नहीं वरन् emotional
commitments से हुए हैं। यह बात दीगर है कि भावात्मक रूप से लिए
गये निर्णयों की प्राप्ति हेतु बुद्धि intellect का उपयोग
करना ही होता है। Emotions प्राकृतिक हैं- हमारे स्वभाव में
हैं- अत: इस सन्दर्भ में समाज कि विभिन्न वर्गो – समुदायों
– जातियों के विद्यार्थियों में योग्यता – वैभिन्य जैसी कोई बात नहीं है।
पिछले कुछ दशकों से
बातचीत अकादमिक जगत में शिक्षा की गुणवत्ता तथा सभी के लिए शिक्षा के सन्दर्भ
में हो रही है- उस ओर मैं आपका ध्यान आकृष्ट करना चाहूँ गा। इस क्षेत्र के
विशेषज्ञों का मानना है कि सम्पूर्ण विश्व में आज के दिन जो समस्त सभ्यताऍ-
संस्कृतियॉ विद्यमान हैं तथा अतीत की वे समस्त सभ्यताऍ- संस्कृतियां जो अब
अस्तित्व में नहीं है- उन सब में कुछ बातें समान हैं। सभी में अपना संगीत, अपने
नृत्य, अपने खेल- कूद के तरीके प्रारम्भ से ही थे- और आज
भी हैं। ये Universals हैं- सार्वकालिक- सार्वभौमिक हैं। 40
हजार वर्ष पूर्व के मानव समूहों से लेकर आज के Post- modern- Ultra modern सभी समाजों- समुदायों में नृत्य, संगीत, कला विद्यमान रही है। इसके विपरीत लिखने- पढ़ने की कला के सन्दर्भ में जो
जानकारियॉ हैं उनके अनुसार at the dawn of industrial revolution in Europe
यूरोप में औद्योगिक क्रान्ति की शुरूवात के समय विश्व की 90
प्रतिशत जनसंख्या लिखने- पढ़ने की कला से अनभिज्ञ थी। अभी कुछ वर्षो पूर्व तक 5
हजार वर्ष पुरानी सभ्यता- संस्कृति वाले हमारे देश में आधी से अधिक आबादी अनपढ़
थी। मैं कई बार विचार करता हूँ - तथा जहाँ अवसर मिलता है- कहता हूँ - यदि शिक्षा को सहज,
सरल, सुगम बनाना है तो उसे कला- संगीत- नृत्य-
व्यायाम आधारित बनाइये। हमारी विडम्बना यह रही कि ये ऐच्छिक विषयों के रूप में
उपलब्ध है न कि आधार के रूप में। दूसरी विडम्बना यह रही कि हमनें Emotions
को- feelings को दोयम दर्जे का समझ भाव शून्य-
बुद्धि को अधिक महत्व दिया। Thinking, feelings पर हावी हो
गयी। परिणाम यह हुआ कि हमारे पास गाइडेड मिसाइल्स हैं और मिसगाइडेड लोग हैं।
विद्यालय आनन्दालय तभी बनेंगें जब बच्चों को जीने के- खिलने के – पुष्पित होने के अवसर मिलेंगें। मुझे कई वर्ष पहले देखा- पढ़ा एक
विज्ञापन याद आता है जिसमें लिखा था – Children walk to school and they
run home - कुछ करना पड़ेगा।
अभी चौखुटिया ब्लाक के कुछ उत्साही- समर्पित- प्राथमिक विद्यालयों के
शिक्षकों ने स्व प्रेरणा से एक अभिनव प्रयोग किया- उनको आशातीत सफलता मिली है। इस
प्रयोग को अन्य विद्यालयों में भी दोहराना होगा।
जिन चुनौतियों पर बात करने की मुझसे अपेक्षा की गयी- उन पर
विचार करता हूँ तो वास्तव में लगता है कि
निम्न आर्थिक स्थिति कठिनाइयाँ उत्पन्न करती हैं । तथाकथित elite schools ऐसे विद्यार्थियों को उपलब्ध नहीं हैं। मंहगें ट्यूटर नहीं हैं, मंहगें कोचिंग सेंटर नहीं हैं, अच्छे पुस्तकालय
नहीं हैं,कम्प्यूटर नहीं हैं, इन्टरनेट नहीं हैं। सबसे बड़ी बात शिक्षा के
आदान- प्रदान हेतु उपयुक्त वातावरण – conducive environment नहीं है।
सामान्यतया आर्थिक रूप से अतिनिम्न परिवार ही First generation
learners भी होते हैं यहाँ समस्या बड़ी
हो जाती है- चुनौती विकट हो जाती है यदि ऐसे विद्यार्थी सुदूर, दुर्गम, ग्रामीण अंचल से हुए तो समस्या अति गम्भीर
हो जाती है। समस्त संसाधनों से युक्त विद्यालय, योग्य
शिक्षक, प्रेरित करने वाला शैक्षिक- सामाजिक वातावरण- इन
सबकी आवश्यकता होगी। कैसे होगा यह सब ॽ सरकारी प्रयास तो करने ही होंगें- कुछ
दुर्भाग्य ही कहें- सरकारों की सर्वोच्च प्राथमिकता शिक्षा कभी रही ही नहीं।
मानव जाति शापित ही लगती है- देश की सीमा की रक्षा- देश के अन्दर के आतंकवाद-
निरर्थक मनोरंजन में होने वाला व्यय यदि शिक्षा को मिल पाता तो सब कुछ सम्भव था।
मेरी राय में आर्थिक संसाधनों के सीमित होने पर भी बहुत
कुछ किया जा सकता है। शिक्षक होने के नाते में शिक्षकों के ही सन्दर्भ में अधिक
बात करूंगा। वेतनमानों की – सेवा शर्तो की – स्थानान्तरण की पारदर्शी की नीति
की बातें हुई हैं- ठीक हुई हैं। अब कुछ दायित्वों की भी बात कर लें। एक बात मैं
स्पष्ट रूप से स्वीकार करता हूँ – 36 वर्षो के Teacher Educator के रूप में जो अनुभव
प्राप्त हुए उनसे मुझे ऐसा लगता है- शिक्षक से हमें अपेक्षाऍ तो बहुत हैं- परन्तु
उन अपेक्षाओं को पूरा कर सके- इसके लिए उपयुक्त, प्रभावी
प्रक्रिया, उपकरण, यन्त्र हमने उसे
उपलब्ध नहीं कराये हैं। उपलब्ध कहॉ से कराते हमने बनाये ही नहीं। बाल- मन,
किशोर मन को मानवता अभी तक कितना समझ पाई- कितना हम विद्यार्थियों
को समझ पाये- पूर्णरूपेण तो शायद नहीं। फिर एक बात मैं
समझ पाया- इस समझ को हमने दूसरों पर छोड़ दिया। कुछ ऐसा हुआ कि हमने सोचना- समझना
दूसरों पर छोड़ दिया। हमें लगा हमसे अधिक विद्वान मौजूद हैं- बड़े- बड़े विषय
विशेषज्ञ हैं, चिन्तक हैं, विचारक हैं,
मनीषी हैं- वे हमारे लिये सोचते हैं- हमें चिन्ता करने की जरूरत
नहीं हैं। यह कुछ गलत हो गया। जहाँ चिन्तन
दूसरों पर छोड़ दिया जाता है- जहाँ कोई
दूसरा आपके लिए सोचता है- वहाँ कुछ न कुछ खो तो जाता ही है। कुछ विशिष्ट क्षेत्रों
में शायद यह ठीक हो। शिक्षण में बात कुछ अलग है। मानव मन से deal करना यांत्रिक प्रक्रिया नहीं है- यहाँ Physics काम नहीं करेगी। इस प्रक्रिया से आप ही परिचित हैं- आप ही तरीका निकालें।
मंत्री, अफसर, तथाकथित विषय- विशेषज्ञ
मदद नहीं कर पायेगें- करनी भी नहीं चाहिए।
एक बात और कहना चाहूँगा – मैं मानता हूँ - प्रश्नों
के ठीक उत्तर देने लायक विद्यार्थियों को बनाना महत्वपूर्ण है। परन्तु इससे भी
कहीं अधिक महत्वपूर्ण हैं- उन्हें इस योग्य बनाना कि वे उत्तरों पर प्रश्न
खड़े कर सकें। Answering the Questions to questioning
the answers- यह एक paradigm shift है। यह याद
रखना होगा- प्रश्न का उठना महत्वपूर्ण है- उत्तर उसके बाद आयेगा। उत्तर आज भी
मिल सकता है- कल भी- 10 वर्षो बाद भी- 100 साल बाद भी- हजारों वर्ष बाद भी – यह महत्वपूर्ण नहीं है- महत्वपूर्ण है प्रश्न –
फिर यह भी स्मरण रखना होगा उत्तर सही-गलत हो सकता है। प्रश्न तो सदैव सही है।
जिस समाज में प्रश्न पूछने की परम्परा न हो- जहाँ प्रश्न
पूछने की मनाही कर दी गयी हो, वह समाज बहुत लम्बे समय तक नहीं चल सकता।
NCF, 2005 के बाद के घटना क्रम में विद्यार्थियों को ज्ञान
के सृजन- निर्माण हेतु प्रोत्साहित करने की बात हो रही है। यह सराहनीय बात है।
मैंने कुछ विचार किया है। बीसवीं शताब्दी का एक अपना hidden curriculum था- मैं उसे OPD कहता हूँ । समाज हमसे अपेक्षा करता
था – हम जो भी विद्यालयों में करें उसके लिए हम स्वतन्त्र
हैं- पर जो कुछ भी किया जाये वह इस प्रकार किया जाये कि जो विद्यार्थी विद्यालयों
से निकलें वे Obedient, Punctual and Disciplined हों। मुझे
लगता है कि इस दृष्टिकोण का अतिवाद हमें अच्छे followers तो
दे सकता है- अच्छे leaders नहीं। कुछ विचार करना होगा। ऐसा
ही पाठ्यक्रम को पूरा करने के सन्दर्भ में ‘’मैंने course
cover कर दिया है- की जगह course को uncover
करने की बात करनी होगी जिससे बच्चे discover
कर सकें’’।
विद्यार्थी क्या
सीखेंगें- सीधी बात है जो उनके लिए महत्वपूर्ण – अर्थपूर्ण- उपयोगी हो।
मेरा मानना है कि Vocationalisation of Education की जगह अब Educationalisation
of Vocations की बात भी करनी होगी। ये पढ़े- लिखे व्यक्ति हैं कि
जगह ये पढ़ने- लिखने वाले व्यक्ति हैं- कहना होगा। शिक्षा में competition की जगह cooperation को महत्व देना होगा। अमित तथा
सुरेश की तुलना करने की जगह अमित को बताना होगा उसने कितना कुछ अर्जित किया। यही बात
सुरेश पर भी लागू होगी।
मेरा मानना है, चीजों को सरल बनाना एक कठिन कार्य है। सीखना सहज,
सरल, सुगम बन सके, इस ओर
प्रयास करने होंगे। शिक्षा वर्ग विशेष के लिए न होकर सभी के लिए हो गयी है। ज्ञान
की मात्रा बढ़ती जा रही है। अधिक विद्यार्थियों को अधिक ज्ञान- गुणवत्ता पूर्ण
ज्ञान प्रदान करना है। यह एक विशिष्ट परिस्थिति है। पुरानी पुस्तकों, पुराने विचारों, पुराने सिद्धान्तों से अब काम नहीं
चलेगा। Extraordinary problems need extra ordinary solutions.
नए विचार, नए सिद्धान्त, नई प्रक्रियाएँ विकसित करनी होंगी। यह कार्य हम शिक्षकों को स्वयं ही
करने होंगे। आवश्यकता है भावात्मक प्रतिबद्धता की – emotional
commitment की – बुद्धि का सम्यक उपयोग स्वयं
ही हो जाएगा।
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